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गायत्री कवचम् नारद उवाच स्वामिन् सर्वजगन्नाध संशयोऽस्ति मम प्रभो मुच्यते केन पुण्येन ब्रह्मरूपः कथं भवेत् कर्मत च्छ्रोतु मिच्छामि न्यासं च विधिपूर्वकम् नारायण उवाच अस्य्तेकं परमं गुह्यं गायत्री कवचं तथा सर्वांकामानवाप्नोति देवी रूपश्च जायते ऋषयो ऋग्यजुस्सामाथर्व च्छंदांसि नारद तद्बीजं भर्ग इत्येषा शक्ति रुक्ता मनीषिभिः चतुर्भिर्हृदयं प्रोक्तं त्रिभि र्वर्णै श्शिर स्स्मृतम् चतुर्भि र्नेत्र मुद्धिष्टं चतुर्भिस्स्यात्तदस्र्तकम् मुक्ता विद्रुम हेमनील धवल च्छायैर्मुखै स्त्रीक्षणैः गायत्त्री पूर्वतः पातु सावित्री पातु दक्षिणे पार्वती मे दिशं राक्षे त्पावकीं जलशायिनी पावमानीं दिशं रक्षेत्पवमान विलासिनी ऊर्ध्वं ब्रह्माणी मे रक्षे दधस्ता द्वैष्णवी तथा तत्पदं पातु मे पादौ जंघे मे सवितुःपदम् देवस्य मे तद्धृदयं धीमहीति च गल्लयोः नः पदं पातु मे मूर्ध्नि शिखायां मे प्रचोदयात् चक्षुषीतु विकारार्णो तुकारस्तु कपोलयोः णिकार ऊर्ध्व मोष्ठंतु यकारस्त्वधरोष्ठकम् देकारः कंठ देशेतु वकार स्स्कंध देशकम् मकारो हृदयं रक्षेद्धिकार उदरे तथा गुह्यं रक्षतु योकार ऊरू द्वौ नः पदाक्षरम् दकारं गुल्फ देशेतु याकारः पदयुग्मकम् इदंतु कवचं दिव्यं बाधा शत विनाशनम् मुच्यते सर्व पापेभ्यः परं ब्रह्माधिगच्छति श्री देवीभागवतांतर्गत गायत्त्री कवचम् संपूर्णं |